अनुवाद दो भाषाओं के बीच मैत्री का पुल है
हमारा देश भारत भौगोलिक और सांस्कृतिक विविधताओं के साथ-साथ बहुभाषा-भाषी भी है। अनेक भाषाओं के साथ-साथ यहां कई बोलियां भी प्रचलित हैं। कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैले इस देश में विभिन्न पंथों-मतों और संप्रदायों के लोग रहते हैं जिनकी भाषाएं एवं बोलियां एक दूसरे से भिन्न हैं। इतनी विभिन्नता के होते हुए भी सभी भारतीय आपस में प्रेम,विश्वास, आस्था और लोक-व्यवहार में एक-दूसरे से बंधे हुए हैं। देश में सबके बीच रागात्मक और भावात्मक सेतु बना हुआ है जिसके कारण राष्ट्रीय एकता एकता कहीं भी बाधित नहीं होती।
विभिन्न भाषाएं बोलने वाले देशवासियों में आपसी मेलजोल और भाईचारे की भावनाओं को बढ़ाने में अनुवाद 'सेतु` का काम करता है। इसके अलावा भौगोलिक सीमाओं को लांघकर भाषाओं के बीच सौहार्द एवं सद्भाव को स्थापित करता है तथा हमें एकात्माकता एवं राष्ट्रीयता की भावनाओं से ओतप्रोत कर देता है।
देश की विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध ज्ञान, शास्त्र, साहित्य, कला की सही जानकारी लोगों तक पहुंचाने का काम अनुवाद के माध्यम से संभव है। देशभर में फैली भाषाओं, बोलियों और अलग-अलग लिपियों में समाई संस्कृतियों और विचारधाराओं को नजदीक लाकर एक सूत्र में पिरोने में अनुवाद की महती भूमिका को नकारा नहीं जा सकता।
कविवर हरिवंशराय बच्चन जी ने ठीक ही कहा है कि अनुवाद दो भाषाओं के बीच मैत्री का पुल है। वे कहते हैं- “अनुवाद एक भाषा का दूसरी भाषा की ओर बढ़ाया गया मैत्री का हाथ है। वह जितनी बार और जितनी दिशाओं में बढ़ाया जा सके, बढ़ाया जाना चाहिए।” भाषाओं के अनुवाद से पता चलता है कि तत्कालीन परिस्थितियों के बारे में दक्षिण भारत की जनता के भाव वही हैं जो उत्तर भारत के लोगों के हैं। भारतीय साहित्य की समीक्षा करने पर पता चलता है कि जिस प्रकार के स्वर हिन्दी भाषी जनता की हृदय-वीणा से निकलते रहे हैं वैसे ही स्वर सारी भारतीय भाषाओं में भी गूंजते रहे हैं।
अनुवाद के विस्तार से ही पता चला कि जब गोस्वामी तुलसीदास रामचरित मानस में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के व्यक्तित्व को साकार कर रहे थे तो उसी समय बांग्ला, उड़िया, असमिया, मराठी, तमिल, मलयालम में राम-काव्य रचा जा रहा था। सूरदास के ब्रजभाषा में रचे गए कृष्ण भक्ति के गीतों की तरह तेलगू, गुजराती, मलयालम, बांग्ला, कन्नड़ भाषा में भी गाए जा रहे थे। अनुवाद के विस्तार से ही पता चला कि ब्रिटिश काल में देश के कोने-कोने में किस तरह लोगों ने स्वतंत्रता की अलख जगाई। आज़ादी के लिए देश के लोगों को एकजुट करने के कार्य भी अनुवाद के माध्यम से साकार हुआ। ब्रिटिश शासन में जब पुनर्जागरण की लहर आई तो अकेले भारतेंदु हरिश्चंद्र ही आधुनिक युग के पुरोधा नहीं बने, उनके साथ-साथ तेलगु के पंतुलु, मराठी के विष्णु शास्त्री चिपलूणकर, गुजराती के नर्मद, उड़िया के फकीर मोहन सेनापति, असमिया के लक्ष्मीनाथ बेजबेरुआ ने भी ऐसे प्रयास किए। अनुवादों ने ही बताया कि निराला की विद्रोही कविताओं की तरह ही हुंकार बांग्ला के नजरूल इस्लाम और तमिल के सुब्रह्मण्यम भारती की राष्ट्रवादी कविताओं में सुनाई देती थी। आज़ादी के बाद देश में उपजी अव्यवस्थाओं और विसंगतियों पर जैसे व्यंग्य और कटाक्ष हिंदी में हरिशंकर परसाई या शरद जोशी कर रहे थे वैसे ही प्रहार गुजराती के विनोद भट्ट की कलम कर रही थी।
प्राचीनकाल से लेकर अब तक अनुवाद ने कई मंजिलें तय की हैं । यह सच है कि आधुनिक काल में अनुवाद को जो गति मिली है, वह अभूतपूर्व है। सभी भारतीय भाषाओं के बीच सद्भावना का माहौल बनाए रखने और उनमें अभिव्यक्ति के पारस्परिक आदान-प्रदान के लिए सम्पर्क भाषा हिन्दी के विशेष योगदान को हमें स्वीकार करना होगा। यही वह भाषा है जो सम्पूर्ण देश को एक सूत्र में जोड़कर राष्ट्रीय एकता के पवित्र लक्ष्य को साकार कर सकती है। स्वामी दयानन्द ने ठीक ही कहा था, ''हिन्दी के द्वारा ही सारे भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है।”